नक्सलियों और माओवादियों में क्या होता है अंतर, क्यों करते हैं ये हिंसा?

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हिंद स्वराष्ट्र : आम तौर पर लोग माओवादियों और नक्सलियों को लेकर भ्रमित रहते हैं और दोनों शब्दावली के बीच के अंतर को ठीक से नहीं समझ पाते। नक्सली हमलों को लेकर आए दिन खबरें आती रहती हैं। पिछले कुछ सालों से नक्सली हमलों में हजारों लोगों की मौत हुई है। वहीं अगर सरकार की मानें तो, नक्सली हमलों में धीरे-धीरे कमी आ रही है और नक्सल प्रभावित इलाके लगातार सिमटते जा रहे हैं। 1967 में शुरू हुई इस समस्या को सरकारें जड़ से मिटाने में अब तक पूरी तरह सफल नहीं रही हैं।

दार्जिलिंग जिले के गांव नक्सलबाड़ी से हुई नक्सवाद की शुरुआत

नक्सलवाद की पृष्ठभूमि की बात करें तो नक्सलवादी विचारधारा’ एक आंदोलन से जुड़ी हुई है। 1960 के दशक में कम्युनिस्टों यानी साम्यवादी विचारों के समर्थकों ने इस आंदोलन का आरंभ किया था। दरअसल, इस आंदोलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के गांव नक्सलबाड़ी से हुई थी, इसलिये यह नक्सलवादी आंदोलन के रूप में चर्चित हो गया। इसमें शामिल लोगों को नक्सली कहा जाता है। वहीं इस आंदोलन में शामिल लोगों को कभी-कभी माओवादी भी कहते हैं।
नक्सलवादी और माओवादी दोनों ही आंदोलन हिंसा पर आधारित हैं। लेकिन, दोनों में फर्क यह है कि नक्सलवाद बंगाल के नक्सलबाड़ी में विकास के अभाव और गरीबी का नतीजा है, जबकि चीनी नेता माओत्से तुंग की राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित मुहिम को माओवाद का नाम दिया गया। दोनों ही आंदोलन के समर्थक भुखमरी, गरीबी और बेरोजगारी से आजादी की मांग करते रहे हैं।
आजादी के बाद भूमि सुधार की पहलें जरूर हुईं थीं। लेकिन, ये पूरी तरह कामयाब नहीं रहीं। नक्सलबाड़ी किसानों पर जमींदारों का अत्याचार बढ़ता चला गया और इसी के मद्देनजर किसान और जमींदारों के बीच जमीन विवाद पैदा हो गया। 1967 में कम्युनिस्टों ने सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की और यह अभी तक जारी है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार ने किया था आंदोलन
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार ने कानू सान्याल और जंगल संथाल के साथ मिलकर सत्ता के खिलाफ एक किसान विद्रोह कर दिया था। 60 के दशक के आखिर और 70 के दशक के शुरुआती दौर में नक्सलबाड़ी विद्रोह ने शहरी युवाओं और ग्रामीण लोगों दोनों के दिलों में आग लगा दी थी। देखते ही देखते इस तरह का आंदोलन बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में आम हो गया और धीरे-धीरे यह ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक में फैल गया। आजाद भारत में पहली बार किसी आंदोलन ने गरीब और भूमिहीन किसानों की मांगों को मजबूती दी, जिसने तत्कालीन भारतीय राजनीति की तस्वीर बदल दी।

2017 में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या घटी
नक्सली हिंसा में कमी की बात करें तो 2008 में 223 जिले नक्सल प्रभावित थे, लेकिन तत्कालीन सरकार के प्रयासों से इनमें कमी आई और 2014 में यह संख्या 161 रह गई। 2017 में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या और घटकर 126 रह गई। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और बिहार को सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्यों की कैटेगरी में रखा गया है।

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