हिंद स्वराष्ट्र फिरोज अंसारी : हमेशा की तरह ‘महिला दिवस’ के आगमन के साथ एक बार फिर स्त्री-शक्ति की स्तुतियों का भ्रामक सिलसिला शुरू हो गया है। हर तरफ भाषण-प्रवचन हैं, यशोगान हैं, कविताई हैं, संकल्प हैं, बड़े-बड़े वादें हैं, बड़ी-बड़ी बातें हैं। तमाम बातों का लब्बोलुआब यह कि स्त्रियां मां है, देवी हैं, शक्तिस्वरूपा हैं, पूजनीय हैं। यह कोई नहीं कहेगा कि वे पुरुषों की जैसी ही हाड़-मांस की बनी एक व्यक्ति हैं जिसकी अपनी स्वतंत्र चेतना होती हैं, सोच होती है, इच्छाएं होती हैं, उड़ने की चाहत होती है। महिला दिवस या किसी भी बहाने स्त्रियों का महिमामंडन दरअसल उनको बेवकूफ़ बनाने का सदियों पुराना और आज़माया हुआ नुस्खा है। आमतौर पर स्त्रियों ने अपनी छवि ऐसी बना रखी हैं कि कोई भी उनकी थोड़ी प्रशंसा कर उन्हें अपने सांचे में ढाल ले जा सकता है। झूठी तारीफें कर हजारों सालों तक धर्म और संस्कृति के नाम पर हम पुरुषों ने इतने योजनाबद्ध तरीके से उनकी मानसिक कंडीशनिंग की हैं कि अपनी बेड़ियां भी उन्हें आभूषण नज़र आने लगी हैं। अगर स्त्रियां पुरूषों की नज़र में इतनी ही ख़ास हैं तो यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि हर धर्म और संस्कृति में पुरूष धर्मगुरु और नीतिकार ही आजतक क्यों तय करते रहे हैं कि हमारी स्त्रियां कैसे रहें, कैसे हंसे-बोले, क्या पहने-ओढ़े और किससे बोलें-बतियाएं ? उन्होंने तो यहां तक तय कर रखा है कि मरने के बाद दूसरी दुनिया में उनकी कौन-सी भूमिका होने वाली है। स्वर्ग या जन्नत में पहुंचकर भी अप्सरा या हूरों के रूप में उन्हें पुरूषों का दिल ही बहलाना है। आधुनिक युग की बात छोड़ दें तो मानवता के इतिहास में क्या ऐसी कोई स्त्री नहीं हुई जो स्त्रियों के लिए आचारसंहिता लिख और उसे लागू करा सके ? ज़ाहिर है कि एक षड्यंत्र के तहत उन्हें परदे के भीतर ही रखा गया।
स्त्रियों के संदर्भ में आजतक गढ़ी गई तमाम नीतियां, मर्यादाएं, आचारसंहिताएं उनके व्यक्तित्व और स्वतंत्र सोच को नष्ट करने के पुरुष-निर्मित औज़ार हैं। दुर्भाग्य से उन्हें अपनी गरिमा मानकर स्त्रियों ने सहज रूप से स्वीकार कर लिया है। स्वीकार भर ही नहीं कर लिया हैं, उन्हें स्त्रीत्व की उपलब्धि और महिमा मानकर सदियों से आने वाली पीढ़ियों को गर्व से हस्तांतरित भी करती आई हैं। उन्होंने पुरुषों की झूठी बातों में आकर पुरुषों के समकक्ष एक अलग, स्वतंत्र व्यक्तित्व की जगह स्वयं को देवी और पूजनीय मान लिया और घर तथा समाज को बचाने और गढ़ी गई मर्यादाओं की रक्षा के नाम पर खुद की और अपनी स्वातंत्र्य चेतना की बलि दे दी। उनके इसी भोलेपन का नतीजा है कि प्रेम, ममता, करुणा, सृजनात्मकता में ईश्वरत्व के सबसे निकट होने के बावज़ूद दुनिया के ज्यादातर मर्दों की नज़र में वे आज भी पुरुषों की संपत्ति और उपभोग की वस्तु हैं। शिक्षा के प्रसार और कानूनी संरक्षण के विस्तार के साथ अब उन्हें धीरे-धीरे समझ आने लगा है कि दुनिया की आधी और श्रेष्ठतर आबादी को अपने इशारों पर चलाने की शातिर मर्दों की चाल उन्हें कहां तक ले आई है।
आज की पढ़ी-लिखी स्त्रियां पहले से ज्यादा आत्मविश्वासी हुई हैं। अपने लिए उन्होंने एक हद तक आर्थिक आत्मनिर्भरता भी हासिल की है और अपेक्षाकृत अधिक आज़ादी भी। इस प्रक्रिया में उन्हें परिवार और बाहर के शिक्षित और विवेकवान पुरुषों का सहयोग भी मिला है। मगर ऐसी स्त्रियों और पुरुषों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। ज्यादातर पुरुष अपनी सोच में आज भी रूढ़िवादी हैं। ज्यादातर स्त्रियां आज भी पितृसत्ता की बेड़ियां नहीं तोड़ पाई हैं। शहरों में स्थितियां तेजी से बदली हैं, मगर ग्रामीण क्षेत्रों और अशिक्षित अथवा अर्द्धशिक्षित आबादी में स्त्रियों की मुक्ति की दिशा में कम खिड़कियां ही खुल पाई हैं।
स्त्रियों के लिए सीमित उपलब्धियों के साथ संतुष्ट होने का यह समय नहीं है। पितृसत्ता की जकड़न से मुक्ति और अपने अधिकारों को हासिल करने का यह संघर्ष जारी रहनी चाहिए। इस संघर्ष में शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता उनके सबसे कारगर हथियार बनेंगे। कोई खास दिवस आमतौर पर ऐसे लोगों या जीवों के लिए मनाए जाते हैं जो कमज़ोर हैं और जिन्हें सहानुभूति और देखभाल की आवश्यकता होती है। जैसे बाल दिवस, दिव्यांग दिवस, वन्यप्राणी दिवस आदि। आज की स्वतंत्रताकामी स्त्रियों को किसी खास दिन या किसी की दया, कृपा, सहानुभूति और झूठे महिमामंडन की नहीं, बहुत सारी स्वतंत्र सोच और स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ थोड़ी आक्रामकता की ज़रुरत है। उनकी ज़िन्दगी कैसी हो, इसे उनके सिवा किसी और को तय करने का अधिकार नहीं।
अगर हम पुरुषों द्वारा निर्मित रूढ़ियों की जकड़न से वे निकल सकीं तो साल के तीन सौ पैसठ दिन उनके, वरना एक दिन की बादशाहत उन्हें मुबारक हो।