आखिर ! कैसे हुआ अग्नि का जन्म ? कितने प्रकार की हैं अग्नियां ? अदभुत रहस्य

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कानपुर उत्तरप्रदेश
आचार्य डा.अजय दीक्षित

गुरु वृहस्पति द्वारा बिभिन्न प्रकार की अग्न्नियों की उत्पत्ति | मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- राजन! बृहस्‍पति जी की जो यशस्विनी पत्‍नी चान्द्रमसी (तारा) नाम से विख्‍यात थी, उसने पुत्ररूप में छ: पवित्र अग्नियों को तथा एक पुत्री को भी जन्‍म दिया।

(दर्श-पौर्णमास आदि में) प्रधान आहुतियों को देते समय जिस अग्नि के लिये सर्वप्रथम घी की आहुति दी जाती है, वह महान व्रतधारी अग्नि ही बृहस्‍पति का ‘शंयु’ नाम से विख्‍यात (प्रथम) पुत्र है।

चातुर्मास्‍य-सम्‍बन्‍धी यज्ञों में तथा अश्वमेध यज्ञ में जिसका पूजन होता है, जो सर्वप्रथम उत्‍पन्न होने वाला और सर्वसमर्थ है तथा जो अनेक वर्ण की ज्‍वालाओं से प्रज्‍वलित होता है, वह अद्वितीय शक्तिशाली अग्नि ही शंयु है।

शंयु की पत्‍नी का नाम था सत्‍या। वह धर्म की पुत्री थी। उसके रूप और गुणों की कहीं तुलना नहीं थी। वह सदा सत्‍य के पालन में तत्‍पर रहती थी। उसके गर्भ से शंयु के एक अग्रिस्‍वरूप पुत्र तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली तीन कन्‍याएं हुईं।

यज्ञ में प्रथम आज्‍यभाग के द्वारा जिस अग्नि की पूजा की जाती है, वही शंयु का ज्‍येष्‍ठ पुत्र ‘भरद्वाज’ नामक अग्नि बताया जाता है। समस्‍त पौर्णमास यागों में स्रुवा से हविष्‍य के साथ घी उठाकर जिसके लिये ‘प्रथम आघार’ अर्पित किया जाता है, वह ‘भरत’ (ऊर्ज) नामक अग्नि शंयु का द्वितीय पुत्र है (इसका जन्‍म शंयु की दूसरी स्‍त्री के गर्भ से हुआ था।)

शंयु के तीन कन्‍याएं और हुईं, जिनका बड़ा भाई भरत ही पालन करता था। भरत (ऊर्ज) के ‘भरत’ नाम वाला ही एक पुत्र तथा ‘भरती’ नाम की कन्‍या हुई। सबका भरण-पोषण करने वाले प्रजापति भरत नामक अग्नि से ‘पावक’ की उत्‍पति हुई।

भरतश्रेष्‍ठ! वह अत्‍यन्‍त महनीय (पूज्‍य) होने के कारण ‘महान’ कहा गया है। शंयु के पहले पुत्र भरद्वाज की पत्‍नी का नाम ‘वीरा’ था, जिसने वीर नामक पुत्र को शरीर प्रदान किया।

ब्राह्मणों ने सोम की ही भाँति वीर की भी आज्‍यभाग से पूजा बतायी है। इनके लिये आहुति देते समय मन्‍त्र का उपांशु उच्‍चारण किया जाता है। सोम देवता के साथ इन्‍हीं को द्वितीय आज्‍यभाग प्राप्‍त होता है। इन्‍हें ‘रथप्रभु,’ ‘रथध्वान’ और ‘कुम्भरेता’ भी कहते हैं।

वीर ने ‘सरयू’ नाम वाली पत्‍नी के गर्भ से ‘सिद्धि’ नामक पुत्र को जन्‍म दिया। सिद्धि ने अपनी प्रभा से सूर्य को भी आच्‍छादित कर लिया। सूर्य के आच्‍छादित हो जाने पर उसने अग्नि देवता सम्‍बन्‍धी यज्ञ का अनुष्‍ठान किया। आह्वान-मन्‍त्र (अग्‍निमग्न आवह इत्‍यादि) में इस सिद्धि नामक अग्नि की ही स्‍तुति की जाती है।

बृहस्‍पति के (दूसरे) पुत्र का नाम ‘निश्च्यवन’ है। ये यश, वर्चस् (तेज) और कान्ति से कभी च्‍युत नहीं होते हैं। निश्च्यवन अग्‍नि केवल पृथ्‍वी की स्‍तुति करते हैं। वे निष्‍पाप, निर्मल, विशुद्ध तथा तेज:पुज्‍ज से प्रकाशित हैं। उनका पुत्र ‘सत्‍य‘ नामक अग्नि है; सत्‍य भी निष्‍पाप तथा कालधर्म के प्रवर्तक हैं।

वे वेदना से पीड़ित होकर आर्तनाद करने वाले प्राणियों को उस कष्‍ट से निष्‍कृति (छुटकारा) दिलाते हैं, इसीलिये उन अग्नि का एक नाम निष्‍कृति भी है। वे ही प्राणियों द्वारा सेवित गृह और उद्यान आदि में शोभा की सृष्टि करते हैं।

सत्‍य के पुत्र का नाम ‘स्‍वन’ है, जिनसे पीड़ित होकर लोग वेदना से स्‍वयं कराह उठते हैं। इसलिये उनका यह नाम पड़ा है। वे रोगकारक अग्नि हैं। (बृहस्‍पति के तीसरे पुत्र का नाम ‘विश्वजित’ है) वे सम्‍पूर्ण विश्व की बुद्धि को अपने वश में करके स्थित हैं, इसीलिये अध्‍यात्‍मशास्‍त्र के विद्वानों ने उन्‍हें ‘विश्वजित्’ अग्‍नि कहा है।

भरतनन्‍दन! जो समस्‍त प्राणियों के उदर में स्थित हो उनके खाये हुए पदार्थों को पचाते हैं, वे सम्‍पूर्ण लोकों में ‘विश्वभुक’ नाम से प्रसिद्ध अग्नि बृहस्‍पति के (चौथे) पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं। ये विश्‍वभुक अग्नि ब्रह्मचारी, जितात्‍मा तथा सदा प्रचुर व्रतों का पालन करने वाले हैं। ब्राह्मण लोग पाकयज्ञों में इन्‍हीं की पूजा करते हैं।

पवित्र गोमती नदी इनकी प्रिय पत्‍नी हुई। धर्माचरण करने वाले द्विज लोग विश्वभुक अग्‍नि में ही सम्‍पूर्ण कर्मों का अनुष्‍ठान करते हैं। जो अत्‍यन्‍त भयंकर वडवानलरूप से समुद्र का जल सोखते रहते हैं, वे ही शरीर के भीतर ऊर्ध्‍वगति-‘उदान’ नाम से प्रसिद्ध हैं। ऊपर की ओर गतिशील होने से ही उनका नाम ‘ऊर्ध्वभाक’ है।

वे प्राणवायु के आश्रित एवं त्रिकालदर्शी हैं। (उन्‍हें बृहस्‍पति का पांचवां पुत्र माना गया है। प्रत्‍येक गृह्यकर्म में जिस अग्नि के लिये सदा घी की ऐसी धारा दी जाती है, जिसका प्रवाह उत्तराभिमुख हो और इस प्रकार दी हुई वह घृत की आहुति अभीष्‍ट मनोरथ की सिद्धि करती है। इसीलिये उस उत्‍कृष्‍ट अग्नि का नाम ‘स्विष्‍टकृत’ है (उसे बृहस्‍पति का छठा पुत्र समझना चाहिये।)

जिस समय अग्निस्‍वरूप बृहस्‍पति का क्रोध प्रशान्‍त प्राणियों पर प्रकट हुआ, उस समय उनके शरीर से जो पसीना निकला, वही उनकी पुत्री के रूप में परिणत हो गया। वह पुत्री अधिक क्रोध वाली थी। वह ‘स्‍वाहा’ नाम से प्रसिद्ध हुई।

वह दारुण एवं क्रूर कन्‍या सम्‍पूर्ण भूतों में निवास करती है। स्‍वर्ग में भी कहीं तुलना न होने के कारण जिसके समान रूपवान् दूसरा कोई नहीं है, उस स्‍वाहा पुत्र को देवताओं ने ‘काम’ नामक अग्नि कहा है।

जो हृदय में क्रोध धारण किये धनुष और माला से विभूषित हो रथ पर बैठकर हर्ष और उत्‍साह के साथ युद्ध में शत्रुओं का नाश करते हैं, उसका नाम है ‘अमोघ’ अग्‍नि। महाभाग! ब्राह्मण लोग त्रिविध उक्‍थ मन्‍त्रों द्वारा जिसकी स्‍तुति करते हैं, जिसने महावाणी (परा) का आविष्‍कार किया है तथा ज्ञानी पुरुष जिसे आश्वासन देने वाला समझते हैं; उस अग्नि का नाम ‘उक्‍थ’ है।
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